‘डेस्टिनेशन वेडिंग’ पर फिल्म बनाने से एक सहूलियत मिल जाती है कि सभी किरदारों को एक कैशल(हिंदी में महल या दुर्ग) में ले जाकर रख दो। देश-दुनिया से उन किरदारों का वास्ता खत्म। अब उन किरदारों के साथ अपनी पर्दे की दुनिया में रम जाओ। कुछ विदेशी चेहरे दिखें भी तो वे मजदूर या डांसर के तौर पर दिखें। ‘शानदार’ विकास बहल की ऐसी ही एक फिल्म है,जो रंगीन,चमकीली,सपनीली और भड़कीली है।
फिल्म देखते समय एहसास रहता है कि हम किसी कल्पनालोक में हैं। सब कुछ भव्य,विशाल और चमकदार है। साथ ही संशय होता है कि क्या इसी फिल्मकार की पिछली फिल्म ‘क्वीन’ थी,जिसमें एक सहमी लड़की देश-दुनिया से टकराकर स्वतंत्र और समझदार हो जाती है। किसी फिल्मकार से यह अपेक्षा उचित नहीं है कि वह एक ही तरह की फिल्म बनाए,लेकिन यह अनुचित है कि वह अगली फिल्म में इस कदर निराश करे।
‘शानदार’ निराश करती है। यह जानदार नहीं हो पाई है। पास बैठे एक युवा दर्शक ने एक दृश्य में टिप्पणी की कि ‘ ये लोग बिहाइंड द सीन(मेकिंग) फिल्म में क्यों दिखा रहे हैं?’
‘शानदार’ कल्पना और अवसर की फिजूलखर्ची है। यों लगता है कि फिल्म टुकड़ों में लिखी और रची गई है। इम्प्रूवाइजेशन से हमेशा सीन अच्छे और प्रभावशाली नहीं होते। दृश्यों में तारतम्य नहीं है। ऐसी फिल्मों में तर्क ताक पर रहता है,फिर भी घटनाओं का एक क्रम होता है। किरदारों का विकास और निर्वाह होता है। दर्शक किरदारों के साथ जुड़ जाते हैं। अफसोस कि ‘शानदार’ में ऐसा नहीं हो पाता।
जोगिन्दर और आलिया अच्छे लगते हैं,लेकिन अपने नहीं लगते। उन की सज-धज पर पूरी मेहनत की गई है। उनके भाव-स्वभाव पर ध्यान नहीं दिया गया है। शाहिद कपूर और आलिया भट्ट अपने नकली किरदारों को सांसें नहीं दे पाते। वे चमकते तो हैं,धड़कते नहीं हैं। फिल्म अपनी भव्यता में संजीदगी खो देती है। सहयोगी किरदार कार्टून कैरेक्टर की तरह ही आए हैं। वे कैरीकेचर लगे हैं। लेखक-निर्देशक माडर्न प्रहसन रचने की कोशिश में असफल रहे हैं।
फिल्म की कव्वाली,मेंहदी विद करण और सिंधी मिजाज का कैरीकेचर बेतुका और ऊबाऊ है। करण जौहर को भी पर्दे पर आने की आत्ममुग्धता से बचना चाहिए। क्या होता है कि फिल्म इंडस्ट्री के इतने सफल और तेज दिमाग मिल कर एक भोंडी फिल्म ही बना पाते हैं? यह प्रतिभाओं के साथ पैसों का दुरुपयोग है। फिल्म का अंतिम प्रभाव बेहतर नहीं हो पाया है। इस फिल्म में ऐसे अनेक दृश्य हैं,जिन्हें करते हुए कलाकारों को अवश्य मजा आया होगा और शूटिंग के समय सेट पर हंसी भी आई होगी,लेकिन वह पिकनिक,मौज-मस्ती और लतीफेबाजी फिल्म के तौर पर बिखरी और हास्यास्पद लगती है।
शाहिद कपूर और आलिया भट्ट ने दिए गए दृश्यों में पूरी मेहनत की है। उन्हें आकर्षक और सुरम्य बनाने की कोशिश की है,लेकिन सुगठित कहानी के अभाव और अपने किरदारों के अधूरे निर्वाह की वजह से वे बेअसर हो जाते हैं। यही स्थिति दूसरे किरदारों की भी है। पंकज कपूर और शाहिद कपूर के दृश्यों में भी पिता-पुत्र को एक साथ देखने का सुख मिलता है। खुशी होती है कि पंकज कपूर आज भी शाहिद कपूर पर भारी पड़ते हैं,पर दोनों मिल कर भी फिल्म को कहीं नहीं ले जा पाते।
लेखक-निर्देशक और कलाकरों ने जुमलेबाजी के मजे लिए हैं। अब जैसे आलिया के नाजायज होने का संदर्भ...इस एक शब्द में सभी को जितना मजा आया है,क्या दर्शकों को भी उतना ही मजा आएगा ? क्या उन्हें याद आएगा कि कभी आलिया भट्ट के पिता महेश भट्ट ने स्वयं को गर्व के साथ नाजायज घोषित किया था। फिल्मों में जब फिल्मों के ही लोग,किस्से और संदर्भ आने लगें तो कल्पनालोक पंचर हो जाता है। न तो फंतासी बन पाती है और न रियलिटी का आनंद मिलता है। ‘मेंहदी विद करण’ ऐसा ही क्रिएटेड सीन है।
‘शानदार’ की कल्पना क्लाइमेक्स में आकर अचानक क्रांतिकारी टर्न ले लेती है। यह टर्न थोपा हुआ लगता है। और इस टर्न में सना कपूर की क्षमता से अधिक जिम्मेदारी उन्हें दे दी गई है। वह किरदार को संभाल नहीं पातीं।
हां,फिल्म कुछ दृश्यों में अवश्य हंसाती है। ऐसे दृश्य कुछ ही हैं। (घोड़ा चलाना क्या होता है ? हॉर्स रायडिंग के लिए हिंदी में घुड़सवारी शब्द है। उच्चारण दोष के अनेक प्रसंग हैं फिल्म में। जैसे कि छीलो को आलिया चीलो बोलती हैं।)
Do well, live well, and dress really well. and life is strange so dont waste time and fully enjoy
Thursday, October 22, 2015
फिल्म रिव्यू : 'शानदार' नहीं है जानदार
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